Wednesday, 3 September 2014

ज्ञान का सागर!

ज्ञान का सागर!


किनारे किनारे चले थे हम,
अनजानी सी थी राहें,
अनकहिंसी थी मंजिले!

वो आपही है जिन्होंने;
सागर की गहराईओं से
ज्ञात कराया;
सही दिशाओंसे
परिचित कराया;
और एक विशाल दृष्टी का
एहसास दिलाया!


जबसे मिलन  के क्षण 
विलिन होते जा रहे है 
राहें और भी लंबी हो रही है 
भले ही मंजिलें और भी है 
पर मजधार में हम है फसें 
इक हुक सी उठी है ह्रदय में 
आपसे दूर होने की !

काश!
समय को अपने मन की डोरी से 
बाँध लेते हम 
कुछ क्षण, कुछ पल 
और जी लेते हम...
ज्ञान के सागर में 
थोड़ा और डूब लेते हम ....
कुछ क्षण और जी लेते हम....

मिलिंद कुंभारे