Thursday, 11 July 2013

काश .....

काश .....
उस मदभरी, मदहोश शाम में
कोई हमसफर, हमनशीं होता,
जो यूँही पढ़ लेता, मेरी खामोश निगाहोंको,
महसूस कर लेता, मेरी दिल की धड़कनोंको .......
उस शाम का मंजर कुछ और होता .......
यूँ मुसाफिर की तरह न भटकते रहते हम,
अपना भी कोई आशियाना होता ......
बंजर सी उस धरती पर,
बस एक एहसास तेरा,
खिलता हुआ गुलाब होता ....
काश .....
उस मदभरी, मदहोश शाम में
कोई हमसफर, हमनशीं होता ........

 मिलिंद कुंभारे

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