(यह कविता समर्पित है अरुणा शानबाग को जो ४२ वर्षों तक कोमा में रही और जीवन और मरण के बीच संघर्ष करती रहीं।)
सफ़र
अँखियों में उसकी
ठहरा हुआ-सा समंदर था
बस कुछ सिसकियाँ
और टुटा हुआ एक ख़्वाब था …………
अनकहा-सा कोई दर्द था
अनसुना-सा कोई राग था
बस बेवजह
वह दिल का धड़कना था …………
न कोई सुबह,
न शाम का पता था
सफर जीवन का
मानो थम सा गया था ................
मृत्यु शैय्या पे
बरसों बिखरा जीर्ण शरीर था
न कोई दवा,
न कोई मरहम था …………
एक प्रश्न-सा मन में उठा है
जीवन और मरण के बीच
क्यूँ था उम्रभर का फासला ?
एक प्रश्न-सा मन में उठा है
क्या यही जीवन की अनबूझ पहेली है ?
क्या यही जीवन है ?
मिलिंद कुंभारे