Wednesday, 9 September 2015

सफ़र


(यह कविता समर्पित है अरुणा शानबाग को जो ४२ वर्षों तक कोमा में रही और जीवन और मरण के बीच संघर्ष करती रहीं।)

सफ़र

अँखियों में उसकी
ठहरा हुआ-सा समंदर था
बस कुछ सिसकियाँ
और टुटा हुआ एक ख़्वाब था …………

अनकहा-सा कोई दर्द था
अनसुना-सा कोई राग था
बस बेवजह
वह दिल का धड़कना था …………

न कोई सुबह,
न शाम का पता था
सफर जीवन का
मानो थम सा गया था ................

मृत्यु शैय्या पे
बरसों बिखरा जीर्ण शरीर था
न कोई दवा,
न कोई मरहम था …………

एक प्रश्न-सा मन में उठा है 
जीवन और मरण के बीच
क्यूँ था उम्रभर का फासला ?

एक प्रश्न-सा मन में उठा है
क्या यही जीवन की अनबूझ पहेली है ?
क्या यही जीवन है ?

मिलिंद कुंभारे

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