फिजा
न जाने कौनसा
वह दौर था,
चारों ओर,
ख़ामोशी,
और सन्नाटा था,
मन में कई उमंगें,
पर खोया खोया सा,
गुमशुदा, गुमसुमसा,
भटका हुआ,
मै एक मुसाफिर था,
उम्र से लम्बी,
उन राहों पर,
मंजिलें तलाशता,
चट्टानों से टकराता,
तूफानों से झुंजता ,
तिनका तिनका,
बिखरा बिखरा सा!
न जाने वह कौन थी,
हवा थी, फिजा थी,
न जाने क्या थी,
झीलसी गहरीं आखों में,
समंदर नीला नीला सा,
जीवन सारा उसमे समाया था,
जिंदगी के करीब,
मैंने मुझको पाया था,
अधमरिसी सांसों में,
सपना एक उमड़ा था,
आज मेरी बाँहों में,
सिमटी थी सारी वादियाँ,
मन में जगा एक अरमान था,
जिंदगी के करीब,
मैंने मुझको पाया था!
मिलिंद कुंभारे
फारच मस्त लिहिलंय .
ReplyDeletesweetsunita धन्यवाद ….
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