Tuesday, 24 September 2013

ग़ज़ल

ग़ज़ल

कहूँ तो क्या कहूँ ?
तुम्हे मैं
कल्पना कहूँ,
ग़ज़ल कहूँ,
या कविता कहूँ .........

नाम से कल्पना कहलाती हो,
पर यथार्थ में विस्वास रखती हो,
छवि छोटीसी दिखती हो,
पर सोच बड़ी तुम रखती हो ........

राह कितनी भी कठिन हो,
कभी न तुम डगमगाती हो,
सच्चाई की राह चलती हो,
निगाहें ऊँची, हौसलें बुलंद रखती हो .......

रातें तनहाइयों में गुजारा करती हो,
पर दिन में सारा जहाँ साथ लिए चलती हो,
गम ए ग़ज़ल दिल में छिपाएं, सदा मुस्कुराती हो,
वक्त को पीछे छोड़, समय से आगे तुम रहती हो ............

मेरी कविता में महज तुम एक कल्पना हो,
पर न जाने क्यूँ, दिल कहता हैं,
शायद, अपने आपमें, लम्हों में बिखरी हुईसी,
तुम एक ग़ज़ल हो ...........

मिलिंद कुंभारे

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