Wednesday, 15 May 2013

ख़ामोशी!

ख़ामोशी!

जिंदगी को गुमराह कर;
कहीं खो गये थे हम!
मंजिलें कहीं और थी;
रास्तें कहीं और थे;
कहीं और
चल दिये थे हम!

वो आप ही है;
जिनकी आहट पाकर;
फिर संभलें है हम!

जिंदगी तो एक विराना था;
चारों ओर जैसे;
निराशाओं का अँधेरा!
वो आप ही है;
रातों के अंधेरों में;
जैसे दिन का उजाला!
हमारी जिंदगी का सवेरा!

बड़े खुशनसीब है हम;
आपके साये में;
जैसे समंदर है आप;
और किनारे-किनारे
चल दिये है हम!

फिर भी न जाने क्यूँ;
थोडा उलझें-उलझें से है हम;
आपके करीब होकर भी;
आपसे बहुत दूर है हम!

न जाने क्यूँ;
कल भी खामोश थे;
आज भी खामोश है हम!

मिलिंद कुंभारे 


2 comments:

  1. ये खामोशीया तोड दो
    मन में है जो बोल दो
    दिल के घावो को युं खुला ना छोडो
    बेरुखी के बंधन को तोड दो …
    नदी की एक धारा बानो .
    किनारो पे क्या रखा है
    तुम किसीका सहारा बनो ,
    मायुसी में क्या रखा है ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,सुनिता

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  2. नदी की एक धारा बानो .
    किनारो पे क्या रखा है
    तुम किसीका सहारा बनो ,
    मायुसी में क्या रखा है ,,,,,,

    क्या बात....liked this......thanks....

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